सतीश कुमार शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
कांग्रेस के विश्वसनीय राजनेता, राजस्थान के दूसरे सर्वाधिक अनुभवी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सर्व-प्रशंसित लोक कल्याणकारी ऐजेण्डा और पार्टी द्वारा हाल ही के महीनों में कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश सरीखे अपने पुराने गढ़ों की सत्ता में धमाकेदार वापसी के बावजूद पार्टी विधानसभा के आगामी चुनावों के विजय अभियान के लिए राज्य में अपनी संगठनात्मक शक्ति को धार नहीं दे पा रही है।विपरीत (संगठनात्मक) परिस्थितियों के बावजूद मुख्यमंत्री के रूप में गहलोत द्वारा सतत् कार्यान्वित हो रहे जनोन्मुखी ऐजेण्डा की गूंज के अतिरिक्त भारत जोड़ो यात्रा और कतिपय राज्यों में हुए चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार से पार्टी में संघर्ष क्षमता और मनोबल बढ़ा है।
इसके बूते पार्टी को मजबूत प्रतिद्वंद्वी भाजपा को अगले वर्ष आम चुनावों में चुनौती देने के लिए तैयार करना है तो कुछ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनावों को जीतना होगा। इस सब प्रक्रिया को गम्भीरता से लिया जाय तो यह तय मानिएगा कि इस चुनावी महासमर का मुख्य मैदान राजस्थान होगा और प्रमुख नायक अशोक गहलोत होंगे।गहलोत पहले से ही एक तरह से चुनाव (प्रचार) अभियान में बुलंद हौसले से लग गये है लेकिन उनके पीछे अनुसरण सहयोग करने वाली कार्यकर्ताओं की फौज उस रूप में तैयारी में नहीं दिखती। इस धड़ा बंधी और फूट-असंतोष से ग्रस्त फ़ौज को एकजुट करके तत्काल “युद्ध-तत्पर” बनाने का मौलिक दायित्व पार्टी आलाकमान कमान का है।यह आलाकमान के सुलह समझौते के प्रयासों और आसन्न चुनावों का प्रभाव ही है जिसके चलते लम्बे समय से मतभेद तथा मनभेद दोनों से ग्रसित सत्तारूढ़ प्रदेश कांग्रेस में अंत:विरोधी गुटों में एकता हेतु स्वर तो सुनाई देने लगे हैं, परंतु उनमें चुनावी समर में जीत हासिल कर सत्ता बरकरार रखने के संकल्प की गूंज और विश्वसनीयता का अभाव है।
विश्वसनीयता में अभाव की झलकियां पार्टी छोटे – बड़े नेताओं – पदाधिकारियों के कभी अहम् – अहंकार भरे कटाक्षों में तो कभी खीज – बौखलाहट युक्त टिप्पणियों में अभी भी साफ दिखती है।इतना ही नहीं मौजूदा सदन के लगभग समूचे कार्यकाल के दौरान सत्तारूढ़ प्रतिद्वंद्वी खेमे में आंतरिक कलह की आंच को हवा (शह) देने के प्रयासों – आरोपों से घिरी रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं की उकसाने वाली चुटकियां भी ऐसी ही अवस्था की द्योतक है।केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी – शाह नीत भाजपा को गहलोत सरकार में सेंध मारी के प्रयास करने की गुंजाइश लगती है। इसके लिये उसको सब्र के साथ कोशिशें जारी रखने का प्रोत्साहन कांग्रेस की फूट गस्त ईकाई में मिलता रहा, यह एक तथ्य ही मुख्यमंत्री गहलोत के समक्ष पूरे पांच साल व्याप्त रहे असहज हालात की गम्भीरता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
इसके चलते जिस प्रकार असंतोष, टकराव, धड़ा बंधी, पद – सत्ता के दावे और उसके लिए बग़ावत, (विधायकों की) खरीद – फरोख्त के नाटकीय प्रसंगों का लम्बा दौर चला वह समूची राजनीतिक धारा के लिए चिंता जनक है। राजस्थान के इतिहास में उस अभूतपूर्व घटनाक्रम के बखान की पुनरावृत्ति यहां ज़रूरी नहीं है।तथापि यह तो मानना पड़ेगा कि मुख्यमंत्री पद की मांग की जिस जिद पर असंतुष्ट गुट के नेता पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट, 2018 में सरकार के गठन से पहले से अड़े थे उस पर वे और उनके समर्थक– कभी 20 – 22 तो कभी कम–, विधायक आज तक पीछे हटने को तैयार नहीं है।
परिणामत: कई उतार – चढावों से भरे घटनाक्रम में राज्य ने वर्ष 2020 में पायलट गुट द्वारा एक माह से ज्यादा समय खुली बग़ावत का दौर देखा। वहीं प्रांत गत वर्ष सितंबर में मुख्यमंत्री के वफादार विधायकों द्वारा सामूहिक इस्तीफे तथा विधायक दल की बैठक के बहिष्कार के उस अशोभनीय प्रसंग का भी साक्षी बना जिसके लिए गहलोत सरीखे संजीदा एवम् सम्माननीय राजनेता को तत्कालीन पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी से माफी मांगनी पड़ी।राज्य की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में नितांत असामान्य और चिंता जनक इस जटिल संकट से निपटने के लिए कांग्रेस आलाकमान कर्नाटक विधानसभा चुनावों से फ़ारिग होते ही जुट गया। दिल्ली में इसी हफ्ते पार्टी के सर्वोच्च कर्ताधर्ताओं के साथ मुख्यमंत्री गहलोत और उनके रूठे पूर्व नायब पायलट की घंटों चली बैठक में दोनों नेताओं के बीच एकबार फिर राजीनामा हो गया। दोनों पक्ष वर्ष के अंत में होने वाले चुनावों में पार्टी के हितों को अक्षुण्ण रखने के लिए राजी हो गये। तय हुआ कि राज्य में पार्टी की सरकार को बरकरार रखने के लिए आपस में मिलकर मजबूती के साथ चुनाव मैदान में उतरेंगे और अपनी मांगों – मुद्दों पर फैसला आलाकमान पर छोड़ देंगे।इस सुलह – समझौते, जिसके मतैक्य के बिन्दुओं पर विस्तृत जानकारी दोनों धड़ों के नेताओं को है, की परिणति देश की इस सबसे ज़्यादा अनुभवी पार्टी की राज्य इकाई में नये सिरे से एकता के सूत्रपात के रूप में हुई।
वर्ष 2018 के चुनावों के लिए चले प्रचार अभियान के समय से ही पद की मांग पर कटु टकराव में लिप्त पार्टी के प्रतिद्वंद्वी धड़ों में इस दौरान आलाकमान के दखल (और मध्यस्थता) से कई बार समझौते हुए लेकिन हालात में सुधार नहीं हुआ। इस बार ताजा समझौता चूंकि सिर पर आ चुके चुनावों में जीत हासिल कर सरकार को बरकरार रखने के अनिवार्य लक्ष्य के मद्देनजर हुआ, इसलिए इसपर सहमति बनाना दोनों धड़ों के साथ साथ पार्टी आलाकमान के लिए भी विवशता थी। इसी विवशता में इस राजीनामा की सफलता की गारंटी थी, बशर्ते आलाकमान के नुमाइंदे और दोनों पक्ष के नेता – कार्यकर्ता भी आत्म संयम का पालन कर पार्टी की राज्य इकाई और इसके आतंरिक हालात पर आम जन में व्याप्त संवाद (नरेटिव) को अपने पक्ष में बदलते। यह गारंटी वाली आंकाक्षा अभी तक फलीभूत नहीं दिखी।
समझौते के बाद एकता की बातें तो होने लगी, पार्टी के एकजूट होकर चुनावों में जाने दुहाई भी दी जाने लगी लेकिन ना कटु कटाक्षों पर ब्रेक लगा ना हो पार्टी हित के लिए स्वयं झुकने या मांगों से पीछे हटने की प्रतिबद्धता सामने आयी, जबकि ये सब संकल्प बिना और ज्यादा समय गंवाए अभिव्यक्त होना जरूरी था।सुलह के बावजूद नेताओं के तेवर और बयानबाजी की बानगी देखने लायक है ::सुलह – समझौते के बाद से ही एकता की दुहाई के बीच दोनों धड़ों के नेताओं में छींटाकसी के रूप में परोक्ष वाक् युद्ध चलता ही रहा। इसमें पार्टी की प्रदेश प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा, प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के बाद रविवार 11 जून को सचिन पायलट के योगदान ने ऐसी स्थिति बना दी कि अगले दिन एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री गहलोत को एक बार फिर पायलट गुट द्वारा तीन वर्ष पूर्व (मानेसर में) की गई बग़ावत की याद दिलाने की जरूरत महसूस हुई।
रविवार को अपने पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर दौसा में आयोजित कार्यक्रम में पूर्व उपमुख्यमंत्री ने कहा कि जन समर्थन के बूते लड़ रहे (युवाओं की) ‘इस’ लड़ाई में ना तो वो झुकेंगे – पीछे हटेंगे और ना ही उनकी आवाज कमजोर पड़ेगी। उन्होंने कटाक्ष – व्यंग्यात्मक लहजे में मुख्यमंत्री पर भी निशाने साधे। पायलट ने कहा कि उनके दूसरों के साथ कैसे भी रिश्ते रहे हों, फाइनली न्याय नीली छतरी वाला करेगा..;.. उनके (सचिन) साथ भी (एक दिन) न्याय होगा..!.. मैं जब दूसरों (केंद्र) से धोखा खाये युवाओं को हमारे द्वारा मदद की बात करता हूं तो मानसिक दिवालियापन का भय दिखाया जाता है!शब्दों में सम्भवतः कोई अनुशासनहीनता का मामला नहीं बनता है, परंतु आशय समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है।जाहिर है मुख्यमंत्री को अगले ही दिन जवाब देना वांछित लगा, और वह शायद ग़लत भी नहीं था क्योंकि “चुटकी लेने” के इस अभियान में तब तक और भी नेता – समर्थक योगदान कर चुके थे।
मुख्यमंत्री ने सोमवार को बांसवाड़ा में आयोजित समारोह में कुशलगढ़ की निर्दलीय विधायक रमीला खड़िया का जिक्र करते हुए कहा – “अगर ये नहीं होती तो मैं मुख्यमंत्री के रूप में आज यहां नहीं होता..;.. मध्यप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में साजिशों से सरकारें गिरी थी..;.. लेकिन राजस्थान में नहीं गिरी..;.. इस महिला ने बहुत मदद (समर्थन) की..;.. इसकी क्षेत्र को लेकर किसी मांग को मैं ठुकरा नहीं सकता..!”इतना ही नहीं, (लगभग) इस दौरान स्वयं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रतिनिधि और पार्टी के राज्य प्रभारी रंधावा ने भी इससे मेल खाती टिप्पणी कर लोगों को कयास लगाने में व्यस्त कर दिया। इसी बीच पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष डोटासरा ने एक टिप्पणी की तो शायद सदाशयता भाव से थी, लेकिन कट्टर प्रतिद्वंद्विता के कड़वाहट भरें माहौल में उसको भी अन्यथा ही लिया जाना स्वाभाविक था। डोटासरा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुभाष महेरिया के पार्टी छोड़ कर भाजपा में जाने की निंदा कर रहे थे। उनका कहना था – इंसान की कीमत अपनी जगह पर रहने से होती है..;.. मिनट-मिनट में पार्टी और पाला बदलने वालों को जनता स्वीकार नहीं करती..;.. जो जनता के बीच रहे..;.. उनके काम करे..;.. उनके सुख-दुख में खड़ा रहे, जनता उसे ही आशीर्वाद देती है..!
पायलट के धड़े के लोग इसे अपने नेता की भाजपा के साथ “रही मिली-भगत” पर कटाक्ष मान रहे हैं, जिन्हें एक हद तक गलत भी नहीं कहा जा सकता।इस सब वृतांत के मद्देनजर दस – बारह दिन पहले दिल्ली में हुए सुलह – समझौते का कितना असर हुआ और यह आगे कितना प्रभावकारी होगा, इसको लेकर शायद हर व्यक्ति का आंकलन भिन्न भिन्न ही होगा।उम्र को लेकर उल्लेखित टिप्पणी सार्वजनिक रूप से आज के अंत:विरोध और प्रतिद्वंद्विता के कड़वाहट भरें माहौल में आलाकमान के एक नुमाइंदे के द्वारा करना सराहनीय नहीं हो सकता..;.. आप बुजुर्गों – युवाओं के लिए जो नीति नियम बनाना चाहते हैं बनाइये, उसको लेकर नाजुक तनावपूर्ण मौके पर सार्वजनिक उद्घोष से क्या लाभ होने वाला है..;.. ऐन चुनाव के पहले ये सब तो नेतृत्व के स्तर पर हालात से निपटने का उचित तरीका नहीं हो सकता।
इस सिलसिले को तत्काल रोका ना गया तो ये पार्टी के लिए चुनावी सफलता की दृष्टि से निश्चित रूप से शुभ नहीं होगा। पार्टी को नहीं भुलना चाहिए संकट तथा नाजुक राजनीतिक हालात से निपटने अथवा चुनाव कुप्रबंधन के चलते पार्टी ने चुनावी सफलता के कई अवसर गंवाये है। पंजाब में हुई चुनावी पराजय इसका ताजा उदाहरण है, जहां सम्भावित जीत विलम्बित और ग़लत फैसलों के चलते सरकार गंवाने का कारण बनी। बाकी और बीती (पराजयों) को बिसरा कर आगे की सुध लेना ही श्रेयस्कर होगा।इसी वर्ष आने वाले महीनों में राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सरीखे महत्वपूर्ण प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें पार्टी नेतृत्व को संजीदगी, समर्पण और पार्टी अनुशासन के साथ कार्यकर्ताओं व नेताओं को एकजुट कर लक्ष्य पर लगाना सुनिश्चित करना अनिवार्य है। यदि यह हो सके तो कर्नाटक और हिमाचल प्रदेशों की जीत के उत्साह को वर्ष 2024 में आम चुनावों में मोदी – शाह नीत भाजपा के समक्ष तुफानी चुनौती के रूप में बदला जा सकता है।
यहां विषय राजस्थान केन्द्रित है..;.. चुनावी महासमर का मुख्य रणआंगन भी यहीं होगा..;.. अशोक गहलोत के रूप में पार्टी में संघर्ष क्षमता की दृष्टि से सर्वाधिक सक्षम नायक भी यहीं है..;.. जिसने अपनी भूमिका से राज्य में अथवा देश में अन्यत्र हर मुकाबले को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए बेहद कठिन बनाया है सबसे सकारात्मक तथ्य यह है कि गहलोत चुनावी सफलता के लक्ष्य को लेकर पहले से ही (अघोषित) प्रचार अभियान छेड़ चुके हैं। उनके पास अपनी सरकार के कार्यों उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त है..;.. आत्मविश्वास व हौसले बुलंद है..!.. बानगी देखिए..;.. मैं इस बार भाजपा की कहीं भी चलने नहीं दूंगा..;.. उनको राज्य में जीतने नहीं दूंगा..;.. हमारी दो सौ में से 156 सीटें आयेंगी..!आलाकमान को केवल संकीर्ण निजी हितों – स्वार्थों के लिये अविश्वास ग्रस्त गुटों में बंटे नेता – कार्यकर्ताओं को एक अनुशासित टीम के रूप में जनता के समक्ष भेजना है। ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से यह आशा भी जागी है।
अशोक गहलोत के पहले से चल रहे “चुनाव अभियान” में सचिन पायलट गुट समेत समूचे कार्यकर्ता दलों को लगा दो, आम जन – मतदाता को यह स्पष्ट संकेत दो कि कांग्रेस राजस्थान में एकजुट फ़ोर्स है। अपने समर नायक को विश्वसनीय तथा अनुशासित फौज देना तो पार्टी का मूल कर्तव्य होना चाहिए..;.. समर नायक को अब धड़े बंधी, फूट और असंतुष्टों से निपटने के हेय कार्य से मुक्त कर चुनाव अभियान में ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलना चाहिए!
मासिक समाचार पत्र माइंड प्लस के 15 जून 2023 के अंक से साभार