श्री परशुराम जी का संपूर्ण जीवन संघर्षमयी रहा  

विष्णु अवतार भगवान श्री परशुराम जी का संपूर्ण जीवन संघर्षमयी रहा है ऐसा धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखित है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इन्दौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं।

महाभारत और विष्णुपुराण के अनुसार परशुराम जी का मूल नाम राम था किन्तु जब भगवान शिव ने उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान किया तभी से उनका नाम परशुराम जी हो गया। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम जी कहलाये। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी।

 

परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

 

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तिर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पिछे धकेल ते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। परशुरामजी चिरंजीवी हैं।

 

परशुराम कुण्ड को प्रभु कुठार के नाम से भी जाना जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश के लोहित ज़िले की पूर्वोत्तर दिशा में २४ किमी की दूरी पर स्थित है। इस कुण्ड से भगवान परशुराम की कथा जुड़ी हुई है। एक बार ऋषि जमादग्नि की पत्नी रेणुका ऋषिराज के नहाने के लिए पानी लेने गई। किसी कारणवश उसे पानी लाने में देर हो गई तब ऋषिराज ने परशुराम को अपनी पत्नी का वध करने के लिए कहा। पिता की आज्ञानुसार परशुराम ने अपनी माता का वध कर दिया। तब परशुराम ने मातृ वध के पाप से मुक्त होने के लिए इस कुण्ड में स्नान किया था। तभी से यह कुण्ड स्थानीय निवासियों में लोकप्रिय हो गया।

 

ग्रंथों में यह उल्लेख ज़रूर आता है कि भगवान परशुराम नेइक्कीस बार विश्व विजय करी, कहाँ कहाँ करी, का उल्लेख नहीं मिलता। यूरोप में एक ऐसा समुदाय है जिनका प्रभाव तक़रीबन संपूर्ण यूरोप में रहा है और वे केल्टिक कहलाए जाते हैं। भगवान परशुराम केल्ट के प्रमुख देवता हैं, जिन्हें वे Dagda के  नाम से पूजते हैं।  केल्ट, भगवान परशुरामके काल खंड में यूरोप में गये भारतीय लोग प्रतीत होते हैं रामायण काल से भी पौराणिक इतिहास प्रतीत होता है।

 

भगवान परशुराम जी के समय के गये केल्टिक समुदाय के लोगों ने यूरोप में अनेक देशों में राज्य स्थापित किए। आज भी अनेक केल्टिक देश कहलाए जाते हैं जिनमें ब्रिटेन , आयरलैंड, फ़्रांस, स्पेन, पुर्तगाल आदि देश के भाग प्रमुख हैं। वैसे केल्टिक समुदाय का प्रभाव अधिकांश यूरोपीय देशों में रहा है। जैसे भारतीय, गंगा-यमुना – सरस्वती संस्कृति से पहचानी जाती है, यूरोप मेंकेल्टिक संस्कृति, दानू (Danube) संस्कृति कहलाईं जाती है एवं दोनों   समानप्रतीत होती हैं। दानू यूरोप की प्रमुख नदियों में से है। देवी दानू, ऋषि कश्यप कीपत्नी हैं।यूरोप में देवी दानू पूजनीय हैं। ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि जब भगवान परशुराम जी ने अस्त्र शस्त्र त्याग दिये तब संपूर्ण विजयी क्षेत्रों को ऋषि कश्यप को सुपुर्द कर दिए। ये विजयी क्षेत्र अधिकांश यूरोप में ही रहे होंगे। यही कारण है वहाँ की संस्कृति आज भी भारतीय संस्कृति से मेल खाती है। केल्ट की सामाजिक संरचना, शैक्षणिक आश्रम व्यवस्था, पुजा पद्धति, तीज त्योहार, गुरू शिष्य परंपरा, यहाँ तककि पौराणिक आगम  भाषा भी समान प्रतीत होती है।

 

परिस्थितियाँ बदलीं जब तक़रीबन दो हज़ार वर्ष पूर्व रोम के शासक जूनियर सीज़र ने फ़्रांस (Gaul) देश के केल्टिक राजा को युद्ध में परास्त किया और इसका लाभ रोम के ईसाई धर्म गुरूजनों ने उठाया और संपूर्ण यूरोप में धार्मिक युद्ध भी छेड़ दिया। धार्मिक, सांस्कृतिक एवंविदेशी आक्रमणों के कारण, हज़ारों वर्ष की ग़ुलामी झेलते हुए भी, पूर्वजों कीसांस्कृतिक धरोहर को बचाने हेतु निरंतर संघर्ष करते रहे हैं। यूरोपीय देश जिन्होंने वर्षों तक भारत पर राज्य किया, में यह   समुदाय भी था, जिन्हें केल्ट कहते हैं, स्वयं भी प्रताड़ित और    संघर्षमयी थे। उनके गुरुजन एवंमार्गदर्शक, द्विजों (Druids) की महत्वपूर्ण    भूमिका रही है। अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड आदि, अनेक देशों में, यूरोप से पलायन कर अनेकविस्थापित हुए और आज भी गोपनीय एवं संघर्षमयी जीवन व्यापन कर रहे हैं।उनके इन पौराणिक संबंधों और संघर्षों से हम भारतीय आज भी अनभिज्ञ हैं।  केल्टिक समुदाय, जो हज़ारों वर्ष पहले हमसे बिछड़ गए, कासंघर्षमयी इतिहास प्रेरणादायी है और हर भारतीयों को  उनपे गर्व होना चाहिए।

 

आयरलैंड में “तारा” नामक द्विजों केपौराणिक आश्रम में स्थित   शिवलिंग की महत्ता, भारत के उज्जैन महाकाल समानहै।केल्ट के आठ प्रमुख पर्व सनातन पर्वों से मेल खाते हैं तथा दिवाली उनकानववर्ष भी है। Celtic Cross उनका शुभ चिन्ह है जो स्वास्तिक प्रतीत होता है।अग्नि उपासक हैं तथा अ,ऊ,म अर्थात् ओम का उच्चारण शुभ मानते हैं। अधिकांशदेवी देवताओं में समानताएँ प्रतीत होती हैं। उनके द्वारा पूज्य देवी देवताओं मेंभगवान शिव, मत्स्यावतार, वाराह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, कल्कि अवतार, धनुवंतरी , देवी दानू, देवऋषी, इन्द्र , मनु आदि हैं। पौराणिकभाषा आगम और सामाजिक संरचना में भी अद्भुत समानताएँ हैं।धर्म और संस्कृति को बचाने का एक अद्भुत इतिहास है । यह शोध कार्य साहित्यकारों और इतिहासकारों के लिए बड़ी चुनौती है।

मेजर :सेवानिवृत: सुरेंद्र नारायण माथुर, जयपुर

लेखक के अपने विचार है ,इससे माइंड प्लस न्यूज का सरोकार नहीं है ।