2023 के नतीजे तय करेंगे 2024 के सहयोगी….

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गोविन्द चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार और मुख्यमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार

अगले लोकसभा चुनावों में अभी दस – ग्यारह महीनों का समय है लेकिन उनकी हलचल शुरू हो गई है। विशेष रूप से देश के राजनीतिक दलों में। केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी, जैसे भी हो अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहती है वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस येन-केन-प्रकारेण उसे लगातार तीसरी बार सत्ता पर कब्जा करने से रोकने की कोशिशों में है।

वर्तमान राजनीतिक स्थितियों का कड़वा सच यह है कि, इन दोनों में से कोई सा भी एक राजनीतिक दल अकेले अपने बूते इन चुनावों में बहुमत हासिल करने की स्थिति में नहीं है। बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज अन्यान्य कारणों से भारतीय जनता पार्टी के सबसे प्रभावी नेताओं में हैं लेकिन यह भी सच है कि उनका यह प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद से  राहुल गांधी का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा है।

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हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के हालिया चुनाव इसका उदाहरण हैं जहां अपनी पूरी ताकत झौंकने के बावजूद मोदी अपनी पार्टी की सरकारों को रिपीट नहीं करवा पाए। दूसरी तरफ 138 वर्ष पुरानी कांग्रेस है जिसका जनाधार पूरे देश में है और हिमाचल तथा कर्नाटक की जीत के साथ वह भविष्य की चुनावी दौड़ में अपनी जगह बनाती दिख रही है।

लोकसभा चुनाव से पहले इस साल होने वाले चार राज्यों – राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनावों में, तेलंगाना के अतिरिक्त तीनों राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है। तेलंगाना में वैसे भी भाजपा का कोई बड़ा जनाधार नहीं है। कर्नाटक में हाल ही हुई हार ने तेलंगाना में पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ा है। अन्य तीनों राज्यों में भी हाल ही हुई विभिन्न सर्वेक्षणों ने भाजपा को नम्बर दो पर ही बताया है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इनमें भाजपा के अपने अंदरूनी सर्वेक्षण भी शामिल हैं। अगर ऐसा होता है तो लोकसभा चुनाव के पहले हिन्दी पट्टी में भाजपा कमजोर स्थिति में होगी। यही स्थिति महाराष्ट्र की भी बताई जा रही है। प्रमुख मराठी अखबार “सकाल” द्वारा पिछले दिनों किए एक सर्वे के अनुसार, यदि आज चुनाव हों तो इस प्रदेश में भी भाजपा विरोधी गठबंधन ” महा विकास अघाड़ी ” की अच्छी जीत के आसार हैं। महा विकास अघाड़ी में कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश यूं तो अभी भाजपा का गढ़ है लेकिन वहां भी कर्नाटक के साथ हुए स्थानीय निकाय चुनाव भाजपा के लिए कोई अच्छे संकेत नहीं देते हैं। नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनाव में, बड़े शहरों का प्रतिनिधित्व करने वाले नगर निगम तो सत्रह के सत्रह भाजपा ने जीत लिए लेकिन अधिक आबादी को अपने आप में समेटे अन्य दो तरह की संस्थाओं के चुनाव परिणाम उसके अश्वमेध के घोड़े के सरपट दौड़ने का संकेत नहीं देते हैं। यूपी में 199 नगर पालिका और 544 नगर पंचायत हैं जिनमें से भाजपा  क्रमशः 98 और 193 सीट ही जीत पाई है। वह यूपी में स्थानीय निकायों की जीत का कितना भी ढिंढोरा पीट ले लेकिन यह सबसे नीचे के स्तर की उसकी जमीनी हकीकत है।

भाजपा और कांग्रेस दोनों का नेतृत्व इस सचाई को जानता है कि वह अकेले अपने दम पर लोकसभा की 543 सीटों पर चुनाव लड़कर बहुमत हासिल नहीं कर सकते लिहाजा दोनों ही गठबंधन की कोशिशों में जुटे हैं। इस मामले में, भाजपा के बजाय कांग्रेस ज्यादा सुविधाजनक स्थिति में है। उसने वर्ष 1991 से गठबन्धन की राजनीति प्रभावी तरीके शुरू की। भाजपा ने अपने पूर्व स्वरूप जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करके वर्ष 1977 में इसकी शुरूआत की लेकिन तभी से वह विश्वसनीयता की कसौटी पर मात खाती रही। इसकी शुरूआत दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी के पतन से हुई। इसके बाद भाजपा ने जब-जब ऐसी कोशिशें कीं अंततः वे परवान नहीं चढ़ पाईं और दम तोड़ गईं।

भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के युग में बने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को बनाने में तब भैंरोसिंह शेखावत जैसे नेताओं की महारथ भी काम आई। तमिलनाडु जैसे राज्य की दोनों द्रविड़ पार्टियों को एक साथ साधने, पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के माध्यम से अकाली दल को साथ रखने अथवा सबसे पुराने साझीदारों में से एक शिवसेना के उद्धव ठाकरे को अपने साथ रखने में सबने मिलकर काम किया। उन्हीं नेताओं के व्यवहार और समझदारी से तब ममता बनर्जी,चंद्रबाबू नायडू और रामविलास पासवान जैसे अनेकानेक विपक्षी नेता भाजपा के गठबन्धन धर्म में शामिल हो गए। धीरे- धीरे जब ये नेता गठबंधन के “बड़े भाई भाजपा” में अप्रासंगिक हुए तो उसका गठवन्धन धर्म भी पूर्वापेक्षा तेजी से बदलने लगा।

आज की स्थिति में राजग नाम का है। उसके सभी बड़े घटक चाहे वह जद यू, शिवसेना और अकाली कोई भी हों, उससे अलग हो चुके हैं। यह सब अलग भी ऐसी स्थिति में हुए हैं कि, उनका अपना जनाधार भी उनके राज्यों में या तो समाप्त हो गया अथवा समाप्त होने के कगार पर है। यह आम कहावत सी बन गई कि,सहयोगियों की कीमत पर भाजपा की ताकत बढ़ी और सहयोगी लुट गए। उसकी सबसे पुरानी सहयोगी महाराष्ट्र की शिवसेना और पंजाब का अकाली दल इसके नवीनतम उदाहरण हैं। इससे विपरीत स्थिति कांग्रेस की है। बिहार का राजद हो या तमिलनाडु का द्रमुक जैसे उसके पुराने सहयोगी आज भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) में उसके साथ हैं।

गठबंधन से इन राज्यों में अपने कमजोर होने की परवाह किए बिना उसने उनको साथ रखा। उसके इन दोनों पुराने सहयोगियों की भी यह विशेषता है कि, हानि-लाभ और अच्छे-बुरे समय की परवाह किए बिना वे उसके साथ बने हुए हैं। अब जब 2024 का आम चुनाव सामने है तब दोनों ही बड़े दल अपने- अपने गठबंधन को मज़बूत बनाने की तैयारियों में जुटे हैं।

मौजूदा राष्ट्रीय राजनीति और देश में अब तक बने गठबंधनों के जीवनकाल को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि, यदि अगले कुछ महीनों में राजनीतिक परिदृश्य में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है तो 2024 का लोकसभा चुनाव गठबंधनों के साये में ही लड़ा जायेगा। साथ ही यह भी कि, गठबंधन सहयोगी तलाशने में, कांग्रेस की तुलना में भाजपा को अधिक जोर आयेगा और वर्ष 2023 के अंत में होने वाले चार राज्यों के चुनाव परिणाम सहयोगियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।

साभार :मासिक समाचार पत्र ” माइंड प्लस ” के 15 जून 2023 के अंक से