ऐसे भी लोग हैं, जिनका प्रोफेशन ही रोना है।

cry-There -are- people -in- -the- world- whose- profession -is -to- cry-jaipur-rajasthan-india

इंसान दिखावे के लिए आसानी से हंस तो सकता है, लेकिन बिना बात के रोना लगभग नामुमकिन ही होता है। अगर आपसे कोई कहे कि अब जरा रोकर दिखाओ, तो शायद आपके लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं होगा, लेकिन दुनिया में ऐसे भी लोग हैं, जिनका प्रोफेशन ही रोना है। इन लोगों को रुदाली कहा जाता है, ये बिना किसी वजह के रो सकते हैं। अनजान लोगों की मृत्यु पर इन्हें ऐसा रुदन करना होता है कि देखने वालों की आंखों में भी आंसू आ जाएं। ऐसा करने के लिए इन्हें पैसे दिए जाते हैं।

अमूमन रुदाली की भूमिका महिलाएं ही निभाती हैं। रुदाली वो स्त्रियां होती हैं, जिन्हें ऊंची जाति के लोगों की मौत के वक्त रोने के लिए बुलाया जाता है। असल में ऊंची जाति के लोगों के लिए रोना या अपने जज्बात दिखाना खानदान की हैसियत के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता है।

अपनों के लिए तो आंसू सभी बहाते हैं, लेकिन ये वो महिलाएं हैं जो गैरों की मौत पर रुदन करती हैं। रोना कभी उनका पेशा था, लेकिन उन्हें आज भी गांव में ऊंची जाति के लोगों की मौत पर रोने के लिए जाना ही पड़ता है। कई दिनों तक उन्हीं के घरों पर जाकर मातम मनाना पड़ता है। रुदालियों का रोना आज भी राजस्थान के आदिवासी और पिछड़े जिलों में गूंजता है। यहां अभी भी यहां सैकड़ों औरतें ऐसी हैं, जो रुदाली के तौर पर पहचानी जाती हैं।

बांग्ला भाषा की मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने रुदाली पर एक कहानी लिखी, जो बहुत चर्चित हुई। इसी कहानी पर कल्पना लाजमी ने ‘रुदाली’ फिल्म बनाई, जो 1993 में रिलीज हुई थी।

रुदाली राजस्थान की कहानी है और इसकी नायिका है शनीचरी, यह रोल डिम्पल कपाड़िया ने निभाया है। फिल्म में दिखाया गया है कि शनीचरी एक दलित महिला है, जो पेशेवर रुदाली बन जाती है। अर्थात जो पैसों के बदले रोने का काम करती है। दूसरों के लिए रोते-रोते एक दिन ऐसा आता है कि अपनी तकलीफों पर, अपने दुखों पर भी शनीचरी की आंखों में आंसू नहीं आते।

कई बार इन्हें बुलाना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि मरने वाले के परिजन कई बार सदमे के कारण रो नहीं पाते हैं और अपने गम को अपने अन्दर ही दबा कर रखते हैं। ऐसा करना मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, गम से उबरने की प्रक्रिया में रोने की बहुत अहमियत होती है। रुदाली जब रुदन करते हैं, तो रोने का माहौल सा बन जाता है, जो लोग रो नहीं पा रहे होते हैं, वो भी इन्हें देख रो पड़ते हैं और उनके अन्दर का दर्द बाहर निकल जाता है। आज भी राजस्थान के कई गांवों और कस्बों में ये परंपरा बरकरार है।

सिरोही जिले के रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, वड़वज, उडवारिया, मारोल, पामेरा जैसे गांवों में रुदाली महिलाओं के सैकड़ों परिवार आज भी रहते हैं। सिरोही में तो कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जिनके पुरुष सदस्य गांव की ऊंची जाति के परिवारों में किसी मौत पर अपना मुंडन कराने को तैयार हो जाते हैं। बदले में ठिकानेदार उन्हें कुछ रुपए इनाम के तौर पर दे देते हैं।

इंटरनेट पर जब मैं इस बारे में और सामग्री तलाश रहा था तो मुझे पता चला कि यह परम्परा सिर्फ हमारे यहां ही नहीं है, बल्कि दुनिया के कुछ अन्य मुल्कों में भी रही है। ताइवान की ल्यू जिन लिन भी एक रुदाली हैं। ऐसे लोगों की मौत पर शोक व मातम मनाना और रोना उनका पेशा है, जिन्हें न तो वो जानती हैं और न ही कभी उन्हें देखा है। वो ताइवान की सर्वश्रेष्ठ पेशेवर रोने वाली यानी रुदालियों में से एक हैं।

चीन में भी पेशेवर ढंग से शोक मनाने की रुदाली परंपरा है। हू सिंगलियान नाम की महिला दक्षिण पश्चिम चीन के देहाती इलाकों में इस पेशे से अपनी रोज़ी-रोटी कमा रही हैं। चीन के कुछ हिस्सों में शोक मनाने वाले लोगों को किराए पर बुलाया जाता है, ताकि अंतिम यात्रा को शोकपूर्ण बनाया जा सके। वहां रुदालियों को ‘कुसांग्रेन’ कहा जाता है।
:- श्याम माथुर वरिष्ठ पत्रकार